चलिए जानतें हैं सबसे लोकप्रिय हरतालिका तीज कथा In HIndi

Dharmik Chalisa & Katha

आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे है  हरतालिका तीज कथा In HIndi। ताकि आप Hartalika Teej Katha के बारे में पूरी जानकारी हासिल कर सकें। हमारा मकसद है कि हम आपको सबसे बढ़िया   Teej Vrat Katha In Hindi  के बारे में ज्ञान प्राप्त करने में मदद करें।

Hartalika teej katha

महत्व 

बता दें कि हरतालिका तीज का व्रत हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा व्रत माना गया है. यह तीज का त्यौहार भादो की शुक्ल पक्ष की तीज को ही मनाया जाता है. दरअसल यह महिलाओं के द्वारा ही त्यौहार मनाया जाता है. ये कम उम्र की लड़कियों के लिए भी यह हरतालिका का व्रत बहुत श्रेष्ठ माना गया हैं. हरतालिका तीज में प्रभु शिव जी एवं माता गौरी तथा भगवान गणेश जी की पूजा का बहुत बड़ा महत्व बताया गया है. यह व्रत निराहार तथा निर्जला किया जाता है. रात को जाग कर नाच गाने के साथ इस व्रत को सम्पन्न किया जाता है.

हरतालिका नाम क्यों पड़ा

माता गौरी के पार्वती रूप में वे भगवान शिव जी को पति रूप में चाहती थी, जिस हेतु उन्होंने बहुत ही कठिन तपस्या की थी उस समय पार्वती की सहेलियों ने उन्हें अगवा कर लिया था. इस वजह से इस व्रत को हरतालिका कहा गया हैं क्योंकि हरत का अर्थ होता है अगवा करना तथा आलिका का अर्थ होता है सहेली मतलब सहेलियों द्वारा अपहरण करना हरतालिका कहलाता है.

हरतालिका तीज कब मनाई जाती है – 

दरअसल हरितालिका तीज भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि के दिन ही मनायी जाती है. यह आमतौर पर अगस्त या सितम्बर के महीने में ही आती है और इसे गौरी तृतीया व्रत भी कहते हैं.

नियम – 

  • यह व्रत निर्जला ही किया जाता हैं, मतलब पूरा दिन तथा रात अगले सूर्योदय तक जल ग्रहण बिल्कुल भी नहीं किया जाता है.
  • ये व्रत कुवांरी कन्या एवं सौभाग्यवती महिलाओं के द्वारा ही किया जाता है कहा जाता ही कि इसे विधवा महिलायें भी कर सकती हैं.
  • इस व्रत का नियम यह है कि इसे एक बार शुरू करने के पश्चात छोड़ा बिल्कुल नहीं जा सकता. इसे प्रति वर्ष पूरे नियमो के साथ ही किया जाना अनिवार्य होता है.
  • हरतालिका व्रत के दिन रतजगा किया जाता है. अर्थात पूरी रात महिलायें इकट्ठी होकर नाच गाना तथा भजन किया करती हैं एवं नये कपड़े पहनकर पूरा श्रृंगार भी किया करती हैं.
  • ऐसा मानना है कि ये व्रत जिस घर में भी होता हैं. वहाँ इस पूजा का खंडन नहीं किया जा सकता मतलब इसे एक परम्परा के रूप में प्रति वर्ष किया जाना बहुत ही अनिवार्य है.
  • सामान्यतः महिलायें यह हरतालिका पूजन मंदिर में ही किया करती हैं.

पूजन सामग्री – 

  • फुलेरा यानी कि विशेष प्रकार से फूलों से सजा होना.
  • गीली एवं काली मिट्टी या फिर बालू रेत
  • केले का पत्ता 
  • सभी प्रकार के फल तथा फूल – पत्ते
  • बैल पत्र, शमी पत्र, धतूरे का फल तथा फूल, अकाँव का फूल, तुलसी, मंजरी आदि.
  • जनैव, नाडा तथा कपड़े,
  • माता गौरी के लिए पूरा सुहाग का सामान 
  • घी, तेल, दीपक, कपूर, कुमकुम, सिंदूर, अबीर, चन्दन, श्री फल एवं कलश आदि. 
  • पंचामृत  

हरतालिका तीज पूजन विधि 

  • हरतालिका पूजन प्रदोष काल में ही किया जाता हैं. प्रदोष काल अर्थात दिन रात के मिलने का समय बताया गया है.
  • हरतालिका पूजन के लिए भगवान शिव एवं माता पार्वती तथा प्रभु श्री गणेश जी की प्रतिमा बालू रेत या फिर काली मिट्टी से अपने हाथों से बनाई जाती है.
  • फुलेरा बनाकर उसे सजाया जाता है. उसके भीतर रंगोली डालकर उस पर पटा या फिर कोई चौकी रखी जाती है.
  • चौकी पर एक सतिया बनाकर उस पर पूजा की थाल रखते हैं. उस थाल में केले के पत्ते को रखते हैं.
  • तीनो प्रतिमा को केले के पत्ते पर विराजमान किया जाता है. सबसे पहले कलश को बनाया जाता हैं जिसमे एक लौटा या कोई घड़ा लेते हैं. उसके उपर श्रीफल रखते हैं. या एक दीपक जलाकर रखते हैं. घड़े के मुंह पर लाल धागा बाँधते हैं. घड़े पर सतिया बनाकर उस पर अक्षत (चावल) चढ़ाया जाता है.
  • फिर कलश का पूजन किया जाता हैं. सबसे पहले जल चढ़ाते हैं, धागा बाँधते हैं. कुमकुम, हल्दी एवं चावल चढ़ाते हैं फिर फूल चढ़ाते हैं. उसके पश्चात भगवान शिव जी की पूजा की जाती है. 
  • कलश के पश्चात प्रभु श्री गणेश जी की पूजा – अर्चना की जाती है. उसके पश्चात माता गौरी की भी पूजा की जाती हैं एवं माता गौरी को सम्पूर्ण श्रृंगार चढ़ाया जाता है.
  • इसके पश्चात हरतालिका की कहानी पढ़ी जाती है. फिर सभी मिलकर आरती करते हैं जिसमे सबसे पहले प्रभु श्री गणेश जी की आरती फिर भगवान शिव जी की आरती फिर माता गौरी की आरती की जाती है.
  • पूजा के पश्चात भगवान की परिक्रमा की जाती हैं. रात भर जागकर पाच पूजा एवं आरती की जाती है.
  • सुबह आखरी पूजा के पश्चात माता गौरा को जो सिंदूर चढ़ाया जाता है. उस सिंदूर से सुहागन स्त्री अपना सुहाग लेती हैं.
  • ककड़ी एवं हलवे का भोग भी लगाया जाता है. उसी ककड़ी को खाकर उपवास तोड़ा जाता है.
  • अंत में सभी सामग्री को एकत्र कर पवित्र नदी या फिर कोई कुण्ड में विसर्जित कर दिया जाता है. 

कथा – 

भगवान शिव जी कहते हैं- ‘हे गौरा, पिछले जन्म में तुमने मुझे पाने के लिए बहुत कठिन तप और घोर तपस्या की थी। तुमने इस तपस्या के दौरान न तो कुछ खाया एवं न ही कुछ पीया बस हवा एवं सूखे पत्ते चबाकर रहीं। भयंकर गर्मी एवं कंपा देने वाली ठंड भी तुम्हें तुम्हारी तपस्या से नहीं डगमगा सकी। बारिश में भी तुमने जल नहीं पिया। तुम्हारी इस हालत को देख तुम्हारे पिता बहुत परेशान थे। उनको परेशान देख नारद मुनि वहाँ आए एवं उनसे कहा कि मैं प्रभु विष्णु के भेजने पर यहां आया हूं। वह आपकी कन्या से विवाह करना चाहते हैं।

’नारदजी की बात सुनकर पिता बोले यदि प्रभु विष्णु यह चाहते हैं तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं। लेकिन जब तुम्हें इस विवाह के बारे में पता चला तो तुम अत्यंत ही दुःखी हो गईं। तुम्हारी सहेली ने तुम्हारे परेशानी का कारण पूछा तो तुमने उसे बताया कि मैंने सच्चे मन से प्रभु शिव जी का वरण किया है, लेकिन मेरे पिता ने विष्णुजी के साथ मेरा विवाह निश्चित कर दिया है। अब मेरे पास प्राण त्याग देने के अलावा कोई और उपाय नहीं बचा है।

तुम्हारी सखी ने कहा-प्राण छोड़ने का यह कारण ही क्या है? मैं तुम्हें घनघोर वन में ले चलती हूं जो साधना स्थल भी है एवं जहां तुम्हारे पिता तुम्हें तलाश भी नहीं पाएंगे। तुमने अपनी सखी की बात मानकर बिल्कुल ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर में न पाकर बड़े चिंतित एवं बहुत परेशान भी हुए। इधर तुम्हारी तलाश होती रही उधर तुम अपनी सहेली के साथ गुफा में मेरी आराधना में लीन रहने लगीं। तुमने एक दिन रेत के शिवलिंग का निर्माण भी किया। तुम्हारी कठिन तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन हिल उठा और मैं बहुत ही जल्दी तुम्हारे पास पहुंचा तथा तुमसे वर मांगने को कहा।

वर मांगते हुए तुमने कहा, ‘मैं आपका सच्चे मन से पति के रूप में वरण कर चुकी हूं। अगर आप सचमुच मेरी तपस्या से बहुत खुश हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए। तब ‘तथास्तु’ कहकर मैं कैलाश पर्वत पर लौट गया। उसी समय गिरिराज अपने बंधु-बांधवों के साथ तुम्हें तलाशते हुए वहां पर पहुंचे। तुमने कहा कि मैं घर तभी जाउंगी यदि आप महादेव से मेरा विवाह करेंगे। तुम्हारे पिता तुरंत मान गए और उन्होने हमारा विवाह करवा दिया। 

ऐसी मान्यता है कि जिस दिन प्रभु शिव जी ने माता पार्वती को पत्नी रूप में स्वीकार किया था ठीक उस दिन भाद्रपद शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि थी।