Vaibhav Laxmi Vrat Katha वैभव लक्ष्मी व्रत कथा

Vaibhav Laxmi Vrat Katha | वैभव लक्ष्मी व्रत कथा

Dharmik Chalisa & Katha

माता वैभव लक्ष्मी के व्रत को कोई भी कर सकता है। मान्यता के अनुसार Vaibhav Laxmi Vrat Katha को पढ़ने से जीवन में धन – धान्य एवं सुख-समृद्धि में बहुत वृद्धि होती है. साथ ही हम आपको बतायेंगे Sunderkand Path Ke Fayde.

Vaibhav Laxmi Vrat Katha

एक बहुत बड़ा नगर था जिसकी जनसंख्या अत्याधिक धी। दूर-पास के अनेकानेक लोग इस नगर में काम-धंधों, नौकरी, रोजगार की तलाश में यहाँ आते थे और रोजगार पाने पर यहीं जम जाते थे। ऐसे लोग अपने काम धन्धों में ऐसे व्यस्त रहते थे कि अपने अतिरिक्त किसी की परवाह नहीं करते थे। लोभ स्वार्थ ने घर के सदस्यों से भी प्रेम व्यवहार कम कर दिया था। ममता, प्यार, दया, सहानुभूति, परोपकार, जैसे संस्कार बहुत कम हो गये थे। पूजा पाठ दिखावे व स्वार्थ पूर्ति के लिए ही लोग करते थे श्रद्धापूर्वक भक्ति भाव से प्रभु भजन एवं कीर्तन नाम मात्र ही था। हेराफेरी, बेईमानी, शराब, जुआ और व्यभिचारी आदि धर्म विरुद्ध कार्यों को ही लोग जीवन का सुख मानते थे। सदा जीवन और उच्च विचार की शिक्षा पुरानी पड़ गई थी। अब तो अधिकांश लोगकिसी भी प्रकार धन कमाकर ऐश करो पर विश्वास रखते थे। इसी नगर में मनोज और शीला नामक एक नवदम्पति निवास करते थे, मनोज का उनका छोटा सा कारोबार था। वह बहुत विवेकी और सुशील थे।ईमानदारी से वह अपना कारोबार करता थे।जिससे उसका कारोबार ठीक-ठाक चल रहा था और आराम से उनका जीवन व्यतीत हो रहा था।

मनोज की पत्नी शीला धार्मिक प्रकृति की संतोषस्वभाव की स्त्री थी। वह किसी की बुराई नहीं करतीथी, परन्तु यथासंभव दूसरों की सहायता को भी तत्पर रहती थी। गृह कार्यों से बचे समय का सदुपयोग वह प्रभु भजन व कीर्तन करने अथवा धार्मिक या ज्ञानवर्द्धक पुस्तके पढ़ने में व्यतीत करती थी।वास्तव में उनकी गृहस्थी एक आदर्श गृहस्थी भी आस पास के अधिकांश लोग उस परिवार की सराहना ही करते थे। किन्तु कुछ लोग, जिन्हें दूसरों की खुशी देखकर जलन होती हैं, उन्हें सुख संतोष पूर्वक जीवन-यापन करते देख मन ही मन कुढ़ते थे। वे इस प्रयास में रहते थे कि किसी भीप्रकार मनोज को गलत रास्ते पर चलाकर उसकी सम्पत्ति से स्वयं ऐश करें।

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मनोज और शीला की गृहस्थी इसी प्रकार हंसी खुशी चल रही थी। पर कहावत है ‘सब दिन होत न एक समान’ मनुष्य के जीवन में दुःख-सुख, हानि-लाभ लगे रहते हैं। मनोज को भी अपने कारोबार में काफी घाटा उठाना पड़ा। उसका शायद कुछ भाग्य ही रूठ गया था। वह अपने कारोबार में हुए घाटे का जल्द से जल्द लाभ में बदलने के चक्कर में गलत लोगों से मित्रता कर बैठा। ये झूठे मित्र उसे जल्द ही करोड़पति बनने का सपना दिखाने लगे और उसे जुआ, घुड़दौड़, शकुटैबोंराब आदि के कुचक्र में डाल दिया। जुए-शराब आदि  में आज तक कौन धनवान हुआ है जो वह धनवान होता? मनोज करोड़पति तो बना नहीं, खाकपति अवश्य बन गया। जल्द से जल्द अमीर बनने के लालच में वह घर में थोड़ी बहुत बची धन सम्पत्ति, गहने, जेवर आदि भी गवां बैठा।

एक समय ऐसा था कि मनोज अपनी पत्नी शीला के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा था। कुछ ही दिनों में ऐसा समय आ गया कि उसे । दो समय के भोजन के भी लाले पड़ गये। घर में दरिद्रता और भुखमरी का साम्राज्य हो गया। इससे मनोज और चिड़चिड़ा हो गया। वह बात । बेबात पर अपनी पत्नी शीला के साथ गाली-गलौच और मारपीट करने लगा।

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शीला एक सुशील और संस्कारी स्त्री थी। वह पति को अपना सर्वस्व समझती थी। पति के व्यवहार से वह दुखी तो बहुत थी किन्तु भगवान पर भरोसा रखकर वह यह सब दुःख सहने लगी। कहते है दुःख में ही भगवान याद आते हैं। सो शीला का मन भी हर समय प्रभु पर भरोसा था और विश्वास था कि भगवान उसे सुख के दिन भी अवश्य दिखायेगा।

एक दिन दोपहर को शीला दुःखी हृदय से भगवान को याद कर रही थी। कि हे प्रभो ! हम तेरे छोटे बच्चे हैं। हमारी गलतियां और अपराधों को क्षमा करो। हे भगवान ! मेरे पति को सद्बुद्धि दो। अभी वह ऐसा कह ही रही थी कि अचानक किसी ने उसके द्वार पर दस्तक दी।शीला विचार मग्न को हो गई कि इस समय मुझ गरीब के घर कौन आ सकता है। सगे सम्बंधियों और यार दोस्तों ने पहले ही किनारा कर लिया था। फिर भी द्वार खोल दिया। देखा तो सामने एक वृद्धा खड़ी थी।

शरीर पर झुरियां थीं किन्तु चेहरे से अलौकिक तेज टपक रहा था। उनकी आँखों से करुणा और प्यार का मानो अमृत बह रहा था। शीला उस वृद्धा को पहचानती नहीं थी, फिर भी उन्हें घर के अंदर ले गई। किसी को बैठाने के लिए घर में उपयुक्त आसन तक नहीं था। अतः सकुचाते हुए शीला ने एक फटी हुए चादर बिछाकर उन्हें बैठने को कहा।वृद्धा उसी चादर पर आराम से बैठ गई। शीला के मन को कुछ शांति सी महसूस हुई। वृद्धा ने उससे पूछा, “शीला, मुझे पहचानती हो या नहीं। “

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शीला बोली, “मांजी, आपको देखते ही कुछ अपनत्व सा महसूस कर रही हूं। ऐसा लगता है जैसे आप मेरे बहुत नजदीकी हो। आपको देखकर मेरा रोम-रोम खिल उठा है। जैसा प्रायः विशेष परिचित व्यक्ति से मिलने पर होता है। किन्तु मुझे कुछ याद नहीं पड़ता मैंने आपको वहां देखा-था?

वृद्धा ने अपनत्व दिखाते हुए कहा, “क्यों इतनी जल्दी भूल गई? अभी कुछ दिन पहले तो तू लक्ष्मी जी के मंदिर में शुक्रवार को भजन कीर्तन में आती थी। मैं भी उसमें जाया करती हूँ। हर शुक्रवार को मैं तुमसे वहां मिलती थी।

जब से शीला का पति मनोज गलत लोगों की संगत में बैठकर कर घर लुटाने लगा था, तभी से शीला बाहर निकलने में शर्म महसूस करने लगी थी। अतः उसने मंदिर जाना भी बंद कर दिया था। शीला ने याद करने की कोशिश की कि वह कब उस बुढ़िया मां से मिली थी, परन्तु उस कुछ याद न आया।

तभी वृद्धा बोली, ‘बेटी तू मंदिर में कितने मधुर भजन गाती थी। बहुत दिन से तू वहां नहीं आई । मैंने सोचा, चलो चलकर देखती हूं, कहीं तू बीमार तो नहीं पड़ गई। यही सोचकर यहां चली आई। वृद्धा के ममत्व भरे बचनों को सुनकर शीला का हृदय भर आया।

उसने अपनी रुलाई रोकने की कोशिश की किन्तु असफल रही और वह फूट कर रोने लगी। यह देखकर वह बुढ़िया मां उसके पास आई और सिर पर प्यार भरा हाथ फेरकर उसे ढांढस बंधाने लगी।वृद्धा बोली, “बेटी जीवन में सुख और दुख आते ही रहते हैं । हमेशा सुख अथवा हमेशा दुःख कभी किसी पर नहीं होता। अत:दुखों से घबराना नहीं चाहिए।” शीला बोली, “मांजी, में थोड़े दुःख में कभी नहीं घबराई, किन्तु अब नहीं सहा जाता” ऐसा कहते-कहते वह फिर रोने लगी। वृद्धा फिर सांत्वना देती हुई बोली, “धैर्य धरो बेटी, और अपनी व्यथा मुझे बता, तुझे क्या दुःख खाये जा रहा है। इस प्रकार बताने से तेरा मन भी हल्का हो जाएगा। और मुझसे हो सकेगा तो तेरे दुःख दूर करने का उपाय भी बता दूंगी।” वृद्धा की बात सुनकर शीला के मन को बहुत राहत मिली।

उसने बुढ़िया मां को अपनी दुखभरी कथा सुनानी शुरू की। वह बोली, “मांजी, पहले मेरे परिवार में बहुत सुख शान्ति थी। मेरे पति ‌मेहनती, ईमानदार और सुशील थे। भगवान की कृपा से मेरे घर में खुशियाँ ही खुशियाँ थी। किसी भी कार्य में हमें कभी धन की कमी महसूस नहीं होती थी। अचानक हमारे भाग्य ने पलटा खाया। मेरे पति को अपने कारोबार में घाटो हुआ। अधिक धन कमाने के चक्कर में वे बुरे लोगों की संगत में आ गये। और वे जुआ, शराब रेस आदि कुटैबों में फंस गये। इस प्रकार उन्होंने अपना सब कुछ गंवा दिया। आज हम बिलकुल कंगाल हो गये। अब तक जैसे-तैसे घर की छोटी-मोटी चीजें बेचकर अपना गुजारा कर रहेंहैं। अब लो घर की सब वस्तुएं भी समाप्त हो गई। हम दर-दर की ठोकरें खाने वाले भिखारी हो गये।”

वृद्धा बोली, “बेटी, कर्म की गति बड़ी न्यारी होती है। मनुष्य यदि अच्छे कर्म करे तो उसे दुःख नहीं उठाने पड़ते । कुछ पिछले जन्मों के कारण लाभ-हानि अथवा सुख-दुख मनुष्य पर आते हैं। ऐसे में वह संयम से काम ले और भगवान पर भरोसा रखे तो शीघ्र ही उन दूखों से पार पा लेता है। बेटी, तेरे दिन भी अवश्य फिरेंगे। मैं तुझे उपाय बाताती हैँ। तू भगवती महालक्ष्मी की भक्त हैं वे तो स्वयं धन की देवी और प्रेम तथा करुणा की अवतार हैं। अपने भक्तों पर उनकी कृपा सदा बनी रहता है। अतः तू उन्हीं महालक्ष्मी जी का व्रत कर। वे अवश्य ही तेरा कष्ट दूर करेंगी।”

बुढ़िया मां की बात सुनकर शीला बहुत प्रसन्न हुई। उसने पूछा, “मांजी श्री महालक्ष्मी जी का व्रत कैसे किया जाता है। यह मझे समझाकर कहो ! मैं इस व्रत को अवश्य करूंगी।बुढ़िया ने कहा, बेटी, श्री महालक्ष्मी जी का व्रत बहुत ही सरल हे इसके करने से धन-सम्पत्ति, सुख वैभव और यश प्राप्त होता है। कुंवारी कन्या को मनचाहा पति मिलें, निसंतान को संतान हो, खोई हुई वस्तु वापस मिले। कोई अन्य मनोकामनाएं भी इस व्रत को करने से पूर्ण होती हैं। धन और वैभव प्रदान करने के कारण ही देवी महालक्ष्मी को धनलक्ष्मीअथवा वैभवलक्ष्मी भी कहा जाता है।

शुक्रवार देवी का दिन होता है। इसलिए यह व्रत शुक्रवार को ही किया जाता है। व्रत करने वाले को सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर भगवति ‘महालक्ष्मी मां जय वैभवलक्ष्मी मां’ का निरन्तर जाप करते रहना चाहिए। सायंकाल अपने घर के एक कोने में चौंकी लगाकर अथवा साफ करके एक पटड़ा रखो, उसके ऊपर एक साफ कपड़ा बिछाकर उस पर थोड़े से चावल रखो। फिर एक लोटे में जल उन चावलों के ऊपर रखो। लोटे के ऊपर एक कटोरी रखो। उस कटोरी में सोने या चांदी का कोई आभूषण रखो। अगर कोई आभूषण न हो तो एक रुपये का सिक्का भी कटोरी में रखा जा सकता है। इसके बाद एक घी का दीपक और धूपबत्ती जलाकर रखो। एक बर्तन में थोड़ा मीठा प्रसाद के रूप में रखो। प्रसाद में बताशे अथवा गुड़ भी रखे जा सकते हैं।

पटड़े के ऊपर लोटे के पास सोने, चांदी या तांबे पर बना श्रीयंत्र भी रखो। यदि धातु का श्रीयंत्र घर में न हो तो कागज पर छपे श्रीयंत्र को भी रखा जा सकता है। भगवती लक्ष्मी मां को ‘श्रीयंत्र’ अत्याधिक प्रिय है। “पूजा करने और कथा कहने के लिए पटड़े के पास पूर्व की ओर मुंह करके बैठो। सबसे पहले श्रीयंत्र को हाथ जोड़कर श्रद्धापूर्वक नमस्कार करो। फिर वैभवलक्ष्मी के ध्यान मंत्र को पढ़कर भगवती महालक्ष्मी जी की स्तुति करो। जिन्हें संस्कृत में भी ध्यान व मंत्र कहने में कठिनाई हो वे सरल भाषा में भी ध्यान व स्तुति कर सकते हैं। भगवती महालक्ष्मी दिखावे की नहीं बल्कि भाव की भूखी हैं। “इसके पश्चात कटोरी में रखे, आभूषण या रुपये पर हल्काकुमकुम और चावल चढ़ाओ। फिर दोनों हाथों से लाल रंग के पुष्प अर्पित कर प्रसाद का भोग लगाओ और धूप व दीप दिखाओ। पुनः लक्ष्मी जी का स्तुति करके लक्ष्मी-महिमा गाओ और आरती उतारो। फिर मन ही मन सच्चे हृदय से जय महालक्ष्मी मां’ का ग्यारह बार उच्चारण करो। इसके बाद ग्यारह या इक्कीस शुक्रवार को व्रत करने का संकल्प लेकर अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए मां से हाथ जोड़कर विनती करो। अंत में मां का प्रसाद बांट दो। थोड़ा सा प्रसाद अपने लिए भीरखो। बाद में कटोरी में रखा आभूषण रुपया और श्री यंत्र उठा कर रखो। लोटे का पानी तुलसी के पौधे पर चढ़ा दो।

‘इस पूरे दिन उपवास रख कर सायं काल प्रसाद खाना चाहिए। यदि इतनी शक्ति न हो तो एक बार शाम को प्रसाद खाकर सादा वैष्णव भोजन कर सकते हैं ।इस प्रकार इस व्रत को शास्त्रीय विधि के अनुसार करने से उसका फल अवश्य प्राप्त होता है। इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य की सब विपत्तियां दूरहोजातीहैएवंधन-वैभव की प्राप्ति भीहोती है। कुंवारी कन्याओं को मनभावन पति मिलना है। सौभाग्यती स्त्रियों को सौभाग्य अखंड रहता है। निःसंतान दम्पत्ति को संतान की प्राप्ति होती है और भी कोई मनोकामना हो तो वह भी अवश्य पूरी होती है।”

शीला यह सब सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुई। उसने कहा, “मारजी, आपने यह जो श्री वैभवलक्ष्मी” के व्रत की विधि बताई है, उसे में अवश्य ही करूंगी। आप कृपा करके मुझे इसकी उद्यापन विधि भी बताइये।” वृद्धा ने कहा, “बेटी इस व्रत की उद्यापन करने की विधि भी बहुत सरल है, ध्यान से सुनो।

ग्यारह या इक्कीस, जितने शुक्रवार को ब्रत करने का संकल्प किया हो, उतने व्रत पूर्ण श्रद्धा” और भावनापूर्वक पूरे होने का अन्तिम शुक्रवार को उद्यापन किया जाता है। इस दिन पूजा विधि हर शुक्रवार को की गई पूजा विधि की तरह ही की जाती है। इस दिन प्रसाद के लिए नारियल गिरि और खीर का प्रसाद वितरित किया जाता है। प्रसाद के साथ कम से कम सात कुवारी या सौभाग्यवती स्त्रियों को कुमकुम का तिलक लगा कर ‘श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा (Vaibhav Laxmi Vrat Katha) की एक-एक पुस्तक भेंट दी जाती है।

“अंत में फिर भगवती श्री महालक्ष्मी के विभिन्न स्वरूपों को श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर नमस्कार करो। और मन ही मन मां से प्रार्थना करो कि हे महालक्ष्मी मां हे धनलक्ष्मी मां ! हे वैभव लक्ष्मी मां ! मैंने सच्चे मन से आपका व्रत पूर्ण किया है। फिर भी मुझसे कोई गलती या अपराध हुआ हो उसे क्षमा करना और हमारी (जो भी आपकी मनोकामना हो उसे कहें )मनोकामना को पूर्ण करना। हमारा सबका कल्याण करना। हमारी विपत्तियों को दूर करके हमें धन-वैभव प्रदान करना। हे देवी मां। आपकी महिमा अपरम्पार है।”

बुढ़िया मां से श्री वैभवलक्ष्मी के व्रत की शास्त्रीय विधि सुनकर शीला का मन मयूर (जैसे) नाच उठा। उसे लगा मानो उसे मनमांगी मुराद मिल गई हो। उसने तत्काल अपनी आंखें बंद करके मन ही मन संकल्प लिया कि ‘हे वैभवलक्ष्मी मां ! मैं आपका इक्कीस शुक्रवार तक बुढ़िया मां द्वारा बताई गई शास्त्रीय विी के अनुसार व्रत और उद्यापन करूंगी।

इस प्रकार संकल्प करके जैसे ही शीला ने आंखें खोली तो वृद्धा मा को कमरे में नहीं पाया। उसने घर से बाहर आकर देखा किन्तु वहां भी उसे कहीं मांजी दिखाई न दी। उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि थोड़ी ही देर में कहां गायब हो गई। वास्तव में वे साक्षात भगवती महालक्ष्मी थी, जो अपनी भक्त शीला को बृद्धा का वेश रखकर रास्ता दिखाने आई थीं।

अगले ही दिन शुक्रवार था। शीला सुबह नहा-धोकर मन ही मन जय महालक्ष्मी मां’ जय वैभव लक्ष्मी मां का जाप करने लगी। सायंकाल वह वैभव लक्ष्मी मां की पूजा करने बैठी। घर में कोई आभूषण तो था। नहीं, आभूषण के नाम पर उसकी नाक एकमात्र लॉग बाकी बची थी। उसने वही निकाल धोकर कटोरी में रखदिया। घर में थोड़ी शक्कर रखी थी, उसका प्रसाद बनाया और फिर बुढ़िया मां के द्वारा बताई गई शास्त्रीविधि के द्वारा वैभव लक्ष्मी माता पूजन किया। पूजन के पश्चात उसने प्रसाद अपने पति मनोज तथा अन्य लोगों को वितरित किया। अंत में स्वयं ग्रहण किया।

श्री वैभवलक्ष्मी मां का प्रसाद खाते ही मनोज के स्वभाव में परिवर्तन आने लगा। उसका चिड़चिड़ापन कम होने लगा और उसका मन कुटैबों से दूर होकर कारोबार जो पहले बिल्कुल ठप्प हो गया फिर से जमने लगा।इक्कीसवें शुक्रवार को शीला ने बुढ़िया मां द्वारा बताई शास्त्रीय विधि के अनुसार उद्यापन किया और ग्यारह स्त्रियों को श्री वैभवलक्षमी व्रत की पुस्तकें भेंट में दी। फिर भगवती महालक्ष्मी के वैभव लक्ष्मी स्वरूप को मन ही मन प्रणाम कर प्रार्थना की कि हे वैभवलक्ष्मी मां. मैंने आपके व्रत की जो मनौती मानी थी वह आज पूर्ण हुई है। हे मां ! हमारे संकटों को दूर कर हमारा कल्याण करो। जाने अनजाने में यदि कोई हमसे अपराध हुआ हो, उसे क्षमा करना मां। हमें धन सम्पत्ति और वैभव प्रदान करना। हमें सद्बुद्धि देना। हे मां आपकी महिमा अपरम्पार है, आपकी सदा जय हो।

इस प्रकार व्रत सम्पूर्ण होने के बाद कुछ ही दिनों में मनोज के कारोबार में अच्छा लाभ होने लगा। उसने शीला को उसके जेवर बापस दिला दिये और घर में पहले जैसी सुख शान्ति आ गई। श्री वैभवलक्ष्मी मां के प्रताप को देखकर अन्य बहुत सी औरतों ने भी उनका विधिपूर्वक व्रत किया और मनभावन फल प्राप्त किये।

हे महालक्ष्मी मां, हे वैभवलक्ष्मी मां जैसे आपने शीला पर कृपा की ऐसे ही अपने अन्य भक्तों पर भी कृपा करना सबका कल्याण करना, उनको सुख शान्ति, प्रदान करना।

Vaibhav Laxmi Mantra

निम्न मंत्र के जाप से माता वैभव लक्ष्मी शीघ्र ही प्रसन्न होती हैं एवं भक्तों पर कृपा बरसाती हैं- 

ऊँ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ऊँ महालक्ष्म्यै नमः