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गणपति उपनिषद (Ganapati Upanishad)

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भगवान गणपति ke bare mein ऐसा कहा जाता है कि भगवान गणपति को वाणी का देवता माना गया है. उन्हें तीन गुणों सत, रज, तम, से परे माना गया है. गणपति मनुष्य के मूलाधार चक्र में स्थित रहते हैं. इच्छा, क्रिया और ज्ञान आदि शक्तियों के वे एकमात्र आधार हैं. योगी सदैव गणपति की आराधना करते हैं.

माना जाता है कि भगवान गणपति की उपासना का बीज मन्त्र ‘ॐगम्’ (ॐ गणपते नम:) है. इसे महामन्त्र के नाम से जाना जाता है. गणेश जी की एकदन्त, वक्रतुण्ड और गजानन नाम से पूजा की जाती है. समस्त शुभकर्मों में सबसे पहले गणपति की उपासना (Ganpati Atharvashirsha ) का विधान है. गणपति की उपासना से सभी सकंट कट जाते हैं और मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है.

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गणपति अथर्वशीर्ष (Ganpati Atharvashirsha Lyrics)

ॐ नमस्ते गणपतये।

त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि

त्वमेव केवलं कर्ताऽसि

त्वमेव केवलं धर्ताऽसि

त्वमेव केवलं हर्ताऽसि

त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्माऽसि

त्व साक्षादात्माऽसि नित्यम।।1।।

ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि।।2।।

 

अव त्व मां। अव वक्तारं।

अव श्रोतारं। अव दातारं।

अव धातारं। अवानूचानमव शिष्यं।

अव पश्‍चातात्। अव पुरस्तात्।

अवोत्तरात्तात्। अव दक्षिणात्तातत्।

अवचोर्ध्वात्तात।। अवाधरात्तात्।।

सर्वतो मॉं पाहिपाहि समंतात।।3।।

 

त्वं वाङ्‌मयस्त्वं चिन्मय:

त्वमानंदमसयस्त्वं ब्रह्ममय:

त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि।

त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्माऽसि।

त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि।।4।।

 

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते।

सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।

सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।

सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।

त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ:

त्वं चत्वारि वाक्पदानि।5।।

 

त्वं गुणत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:

त्वं देहत्रयातीत:। त्वं कालत्रयातीत:

त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यं।

त्वं शक्तित्रयात्मक:

त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं।

त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं

त्वं रुद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं

वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं

ब्रह्मभूर्भुव:स्वरोम।।6।।

 

गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं।

अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितं।

तारेण ऋद्धं। एतत्तव मनुस्वरूपं।

गकार: पूर्वरूपं। अकारो मध्यमरूपं।

अनुस्वारश्‍चान्त्यरूपं। बिन्दुरुत्तररूपं।

नाद: संधानं। स हितासंधि:

सैषा गणेश विद्या। गणकऋषि:

निचृद्गायत्रीच्छंद:। गणपतिर्देवता।

ॐ गं गणपतये नम:।।7।।

 

एकदंताय विद्‌महे।

वक्रतुण्डाय धीमहि।

तन्नो दंती प्रचोदयात्।।8।।

 

एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम।

रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम।

रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम।

रक्तगंधाऽनुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम।।

भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम।

आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृते पुरुषात्परम।

एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:।।9।।

 

नमो व्रातपतये। नमो गणपतये।

नम: प्रमथपतये।

नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय।

विघ्ननाशिने शिवसुताय।

श्रीवरदमूर्तये नमो नम:।।10।।

एतदथर्वशीर्ष योऽधीते।

स ब्रह्मभूयाय कल्पते।

स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते।

स सर्वत: सुखमेधते।

स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते।।11।।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।

प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।

सायंप्रात: प्रयुंजानोऽपापो भवति।

सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।

धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति।।12।।

इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्।

यो यदि मोहाद्‍दास्यति स पापीयान् भवति।

सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्।13।।

अनेन गणपतिमभिषिंचति

स वाग्मी भवति

चतुर्थ्यामनश्र्नन जपति

स विद्यावान भवति।

इत्यथर्वणवाक्यं।

ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्

न बिभेति कदाचनेति।।14।।

यो दूर्वांकुरैंर्यजति

स वैश्रवणोपमो भवति।

यो लाजैर्यजति स यशोवान भवति

स मेधावान भवति।

यो मोदकसहस्रेण यजति

स वाञ्छित फलमवाप्रोति।

य: साज्यसमिद्भिर्यजति

स सर्वं लभते स सर्वं लभते।।15।।

अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा

सूर्यवर्चस्वी भवति।

सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ

वा जप्त्वा सिद्धमंत्रों भवति।

महाविघ्नात्प्रमुच्यते।

महादोषात्प्रमुच्यते।

महापापात् प्रमुच्यते।

स सर्वविद्भवति से सर्वविद्भवति।

य एवं वेद इत्युपनिषद्‍।।16।।

 

अथर्ववेदीय गणपतिउपनिषद समाप्त।।

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गणपति अथर्वशीर्ष हिंदी में Ganapati Atharvashirsha in Hindi

ॐ नमस्ते गणपतये। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि।

त्वमेव केवलं कर्तासि। त्वमेव केवलं धर्तासि।

त्वमेव केवलं हर्ताऽसि।

त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि।

त्वं साक्षादात्मासि नित्यम्।।१।।

अर्थ गणपति को नमस्कार है. तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्त्व हो. तुम्हीं केवल कर्ता हो. तुम्हीं केवल धारणकर्ता और तुम्हीं केवल संहारकर्ता हो. तुम्हीं केवल समस्त विश्वरूप ब्रह्म हो और तुम्हीं साक्षात् नित्य आत्मा हो.

ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि।।२।।

अर्थ यथार्थ कहता हूँ. सत्य कहता हूँ.

अव त्वं माम्.| अव वक्तारम्। अव श्रोतारम्।

अव दातारम्। अव धातारम्। अव अनूचानम्।

अव शिष्यम्। अव पश्चात्तात्। अव पुरस्तात्। अवोत्तरात्तात्।

अव दक्षिणात्तात्। अव चोर्ध्वात्तात् । अवाधस्तात्।

सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात्।।३।।

अर्थ तुम मेरी रक्षा करो. वक्ता की रक्षा करो।.श्रोता की रक्षा करो. दाता की रक्षा करो. धाता की रक्षा करो. षडंग वेदविद् आचार्य की रक्षा करो. शिष्य की रक्षा करो. पीछे से रक्षा करो. आगे से रक्षा करो. उत्तर भाग की रक्षा करो. दक्षिण भाग की रक्षा करो. ऊपर से रक्षा करो. नीचे की ओर से रक्षा करो. सर्वतो भाव से मेरी रक्षा करो. सब दिशाओं से मेरी रक्षा करो.

त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः। त्वमानन्दमयस्त्वं ब्रह्ममयः।

त्वं सच्चिदानन्दाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।

त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि।।४।।

अर्थ  तुम वाङ्मय हो, तुम चिन्मय हो. तुम आनन्दमय हो, तुम ब्रह्ममय हो. तुम सच्चिदानन्द अद्वितीय परमात्मा हो. तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो. तुम ज्ञानमय हो, विज्ञानमय हो.

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।

सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।

त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः। त्वं चत्वारि वाक्पदानि।।५।।

अर्थ  यह सारा जगत् तुमसे उत्पन्न होता है. यह सारा जगत् तुमसे सुरक्षित रहता है. यह सारा जगत् तुम्हीं में लीन होता है. यह अखिल विश्व तुममें ही प्रतीत होता है. तुम्हीं भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश हो. तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चतुर्विध वाक् (वाणी) हो.

त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः।

त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्। त्वं शक्तित्रयात्मकः।

त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम्।

त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वमिन्द्रस्त्वमग्निस्त्वं

वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमास्त्वं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।।६।।

अर्थ  तुम तीनों गुणों (सत्त्व-रज-तम) से परे हो.  तुम तीनों कालों (भूत-भविष्य-वर्तमान) से परे हो. तुम तीनों देहों (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर) से परे हो. तुम नित्य मूलाधार चक्र में स्थित हो. तुम तीनों शक्तियों (दैवी-शक्ति, उत्साह-शक्ति और मन्त्र-शक्ति) से संयुक्त हो. योगीजन नित्य तुम्हारा ध्यान करते हैं.  तुम ब्रह्मा हो, तुम विष्णु हो, तुम रुद्र हो, तुम इन्द्र हो, तुम अग्नि हो, तुम वायु हो, तुम सूर्य हो, तुम चन्द्रमा हो, तुम (सगुण) ब्रह्म हो, तुम (निर्गुण) त्रिपाद भूः भुवः स्वः एवं प्रणव हो.

गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम्।

अनुस्वारः परतरः।अर्धेन्दुलसितम्। तारेण रुद्धम्।

एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्।

अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः सन्धानम्।

संहिता सन्धिः। सैषा गणेशविद्या। गणक ऋषिः निचृद् गायत्री छन्दः।

गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः।।७।।

अर्थ  ‘गण’ शब्द के आदि अक्षर गकार का पहले उच्चारण करके अनन्तर आदिवर्ण अकार का उच्चारण करे. उसके बाद अनुस्वार रहे. इस प्रकार अर्धचन्द्र से पहले शोभित जो ‘गं’ है, वह ओंकार के द्वारा रुद्ध हो अर्थात् उसके पहले और पीछे भी ओंकार हो. यही तुम्हारे मन्त्र का स्वरूप (ॐ गं ॐ) है. ‘गकार’ पूर्व रूप है, ‘अकार’ मध्यम रूप है, ‘अनुस्वार’ अन्त्य रूप है. ‘बिन्दु’ उत्तर रूप है. ‘नाद’ सन्धान है. ‘संहिता’ सन्धि है. ऐसी यह गणेशविद्या है. इस विद्या के गणक ऋषि हैं, निचृद् गायत्री छन्द है और गणपति देवता हैं. मन्त्र है─ ‘ॐ गं गणपतये नमः.

एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि।

तन्नो दन्ती प्रचोदयात्।।८।।

अर्थ  एकदन्त को हम जानते हैं, वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं. दन्ती हमको उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करें.

एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमङ्कुशधारिणम्।

रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम्।।

रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।

रक्तगन्धानुलिप्ताङ्गं रक्तपुष्पैः सुपूजितम्।।

भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।

आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम्।।

एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः।।९।।

अर्थ  गणपतिदेव एकदन्त और चतुर्बाहु (चार भुजावाले) हैं.  वे अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, दन्त और वरमुद्रा धारण करते हैं. उनके ध्वज में मूषक का चिह्न है. वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा रक्तवस्त्रधारी हैं. रक्तचन्दन के द्वारा उनके अंग अनुलिप्त हैं.  वे रक्तवर्ण के पुष्पों द्वारा सुपूजित हैं. भक्तों की कामना पूर्ण करनेवाले, ज्योतिर्मय, जगत् के कारण, अच्युत तथा प्रकृति और पुरुष से परे ‘विद्यमान पुरुषोत्तम’ सृष्टि के आदि में आविर्भूत हुए हैं, जो इनका इस प्रकार नित्य ध्यान करता है वह योगी, योगियों में श्रेष्ठ है.

नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये |

नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय श्रीवरदमूर्तये नमः।।१०।।

अर्थ  व्रात (समूह) पति को नमस्कार, गणपति को नमस्कार, प्रमथपति को नमस्कार, लम्बोदर, एकदन्त, विघ्ननाशक, शिवतनय श्रीवरदमूर्ति को नमस्कार है.

एतदथर्वशीर्ष योऽधीते। स ब्रह्मभूयाय कल्पते।

स सर्वविघ्नैर्न बाध्यते। स सर्वतः सुखमेधते स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।

प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।

सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति।

सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति धर्मार्थकाममोक्ष च विन्दति।

इदम् अथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्। यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान्

भवति। सहस्रावर्तनाद् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्।।११।।

अर्थ  इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है, वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता, वह सर्वतोभावेन सुखी होता है, वह पंच महापापों से मुक्त हो जाता है. सायंकाल इसका पाठ दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल इसका पाठ रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है. सायं और प्रातःकाल पाठ करनेवाला निष्पाप हो जाता है. (सदा) सर्वत्र पाठ करनेवाला सभी विघ्नों से मुक्त हो जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष ─इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। यह अथर्वशीर्ष उसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अशिष्य को उपदेश देगा, वह महापापी होगा. इसकी एक हजार आवृत्ति (पाठ) करने से उपासक जो कामना करेगा, इसके द्वारा उसे सिद्ध कर लेगा.

अनेन गणपतिमभिषिञ्चति स वाग्मी भवति।

चतुर्थ्यामनश्नञ्जपति स विद्यावान् भवति। इत्यथर्वणवाक्यं।

ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्। न बिभेति कदाचनेति।।१२।।

अर्थ  जो इस मन्त्र के द्वारा श्रीगणपति का अभिषेक करता है, वह वाग्मी हो जाता है.  जो चतुर्थी तिथि में उपवास कर जप करता है, वह विद्यावान् (अध्यात्म विद्या विशिष्ट) हो जाता है. यह अथर्वण वाक्य है. जो ब्रह्मादि आवरण को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता.

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यो दूर्वाङ्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति।

यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति। स मेधावान् भवति।

यो मोदकसहस्रेण यजति स वाञ्छितफलमवाप्नोति।

यः साज्यसमिद्भिर्यजति स सर्वं लभते स सर्वं लभते।।१३।।

अर्थ जो दूर्वांकुरों (अंकुरित दुर्वा) द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है . जो लाजा (चावल) के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी होता है, वह मेधावान् होता है. जो सहस्र मोदकों द्वारा यजन करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है. जो घृताक्त (घी युक्त) समिधा के द्वारा हवन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है.

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अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति।

सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासन्निधौ वा जप्त्वा सिद्धमन्त्रो भवति।

महाविघ्नात् प्रमुच्यते। महापापात् प्रमुच्यते। महादोषात प्रमुच्यते।

स सर्वविद् भवति। स सर्वविद् भवति। य एवं वेद।।१४।।

अर्थ  जो आठ ब्राह्मणों को इस उपनिषद् का सम्यक ग्रहण करा देता है, वह सूर्य के समान तेज सम्पन्न होता है. सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद् का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है. सम्पूर्ण महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है. महापापों से मुक्त हो जाता है. महादोषों से मुक्त हो जाता है. वह सर्वविद् हो जाता है. वह सर्वविद हो जाता है, जो यह जानता है.

।।इत्युपनिषत्।।