pratha kya hai pratha ke baare me Pratha |प्रथा क्या है | कितने प्रकार की होती है | शुरुवात

Pratha |प्रथा क्या है | कितने प्रकार की होती है | शुरुवात

WELLNESS FOREVER

प्रथा क्या है 

प्रथा एक तरह से व्यक्ति का व्यवहार है जो पीढ़ियों दर पीढ़ियों उसी तरह चलता है जैसा पीढ़ी देखती है बड़ी पीढ़ी दिखाती है, व सिखाती है. इसमें बिल्कुल भी फेरबदल मंजूर नहीं है  और थोडा सा फेरबदल होने पर तब तक पहली पीढ़ी संतुष्ट नहीं होती है जब तक व्यवहार बिल्कुल उसी तरह उसी विधि से नहीं हो जाता है. यह पीढ़ियों दर पीढ़ियों (Meaning of Pratha) चलने वाला व्यवहार है यह रीति सबके लिए समान रहती है समय, विज्ञान और आधुनिकता का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है प्रथा पर व्यक्ति गर्व महसूस करता है .

लेकिन प्रथा का अधिकतर अर्थ परम्परा के तौर पर निर्विवाद चलने वाले व्यवहार होता है जैसे कि बलि प्रथा,.ठगी प्रथा, जागीरदारी प्रथा, दहेज़ प्रथा, सती  प्रथा,पर्दा प्रथा आदि .

Also Read – Akbar Birbal Kahani In Hindi | अकबर बीरबल की शिक्षाप्रद कहानियां

बलि प्रथा

बलि प्रथा एक प्रकार की धार्मिक प्रथा है यह एक प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान है जो हिन्दू धर्म के अनुयायी अपने इष्ट को प्रसन्न करने के लिए इस अनुष्ठान को करते हैं इसमें अनुयायी इष्ट देव को प्रसन्न करने के लिए किसी पशु की बलि देते हैं (बलि प्रथा) अर्थात इस धार्मिक अनुष्ठान में देवता के नाम पर उस पशु की हत्या की जाती है और उसके मृत शरीर को पकाकर सब प्रसाद के तौर पर खाते हैं. इन अनुयायियों का विश्वास है कि इससे देवता खुश होते हैं,और उनकी समस्याओं को समाप्त कर देते हैं इससे घर में ख़ुशहाली आती है जो घर बलि प्रथा का पालन करता है .

मंजी प्रथा क्या है

मंजी प्रथा सीख धर्म की प्रथा है. मंजी का अर्थ होता है मुखिया सिख धर्म के जन्म के समय आने जाने के साधन विकसित नहीं थे इससे सिख धर्म के अनुयायियों को गोइंदवाल और गुरु ग्रंथसाहिब का प्रवचन सुनने में बहुत मुश्किल होती थी. इस मुश्किल को गुरु साहिब ने जब महसूस किया तो पंजाब व आस पास के इलाके को 22 भागों में बाँट दिया व हर एक स्थान पर एक मुखिया नियुक्त किया वह मुखिया एक मंजी पर बैठ कर धार्मिक प्रवचन, गुरवाणी और सबद का पाठ करते थे  और मुखिया अर्थात प्रवचन करने वाला हमेशा सुनने वालों  से ऊँचे स्थान पर बैठता था जिस चीज(बिस्तर) पर वह बैठता था उसे मंजी कहते हैं . 

Also Read – Akbar Birbal Stories In Hindi With Moral | मनोरंजक कहानियां

मंजी प्रथा के लाभ

  • दूर के सिखों को भी अपने आस पास अपने धर्म की शिक्षा मिलने लगी.
  • सिख धर्म के प्रचार में आसानी हो गयी .
  • गुरु के घर और लंगर के लिए लोगों ने भेंट देनी शुरू कर दी.  

जागीरदारी प्रथा

Also Read – पंचतंत्र सबसे रोचक मजेदार कहानियां | With Moral | Hindi Text | PDF

भारत में जागीरदारी प्रथा की शुरुआत मुस्लिम सल्तनत के दौरान हुई थी. यह लगभग बारहवी सदी के अंत में  इसकी (जागीरदारी प्रथा) शुरुआत हुई. मुस्लिम सल्तनत के दौरान राजा राज्य के किसी अधिकारी को वेतन के स्थान पर एक राज्य के किसी क्षेत्र का भू भाग देता था. जिस पर वह अधिकारी उस भू भाग से कर वसूलने का अधिकार राजा देता था. यह राजा उस अधिकारी को सशर्त और बिना शर्त के जागीर सौपता था .

गयासुद्दीन बलबन और अलाउद्दीन खिलजी ने इस प्रथा को समाप्त करने पर जोर दिया. परतु शासक फिरोजशाह तुगलक ने इस प्रथा को दुबारा शुरू किया .

मनसबदारी प्रथा

भारत में मनसबदारी प्रथा को मंगोल शासकों ने प्रारंभ किया था लेकिन भारत में इसका कोई उदहारण नहीं मिलता है. मनसबदारी प्रथा राजा अकबर के शासन काल में आरम्भ हुई थी.अकबर ने अपने शासन में सन 1575 में मनसबदारी व्यवस्था लागू की थी .

राजा अलबर ने अपनी सेना पर बहुत ध्यान दिया क्योंकि अकबर जानते थे कि एक श्रेष्ठ सेना के बिना न तो  राज्य में शांति स्थापित की जा सकती है और न ही अपने राज्य का विस्तार किया जा सकता है .

अकबर ने जागीरदारी प्रथा की कमियों को नज़रअंदाज  नहीं किया क्योंकि जागीरदार राजस्व को अपने मन मुताबिक खर्च करते थे जिसमे वे अपने भोग विलास को प्राथमिकता देते थे जिसका राज्य को कोई लाभ नहीं होता था अकबर ने सेना को सशक्त करने के लिए जागीरदारी व्यवस्था को समाप्त किया व मनसबदारी व्यवस्था को लागू किया.

मनसबदारी व्यवस्था के अंतर्गत जागीरदार को अपने पद के अनुरूप एक निश्चित मात्रा में घुडसवार रखने पड़ते थे.राजा मनसबदार को एक निश्चित वेतन देता था . इसके अलावा मनसबदार को प्रति घुडसवार को दो रुपये प्रति घुडसवार दिए जाते हैं.

मनसबदार एक फ़ारसी शब्द है जिसका अर्थ होता है पद या दर्जा या ओहदा. बादशाह अकबर जिस व्यक्ति को ओहदा देता था उसे मनसबदार कहते थे. अकबर अपने हर एक सैनिक अधिकारी और असैनिक अधिकारी को कोई न कोई पद जरुर देता था. बादशाह अकबर ने मनसब को दो भागों में बाँट रखा था.

  • जात
  • सवार

जात को व्यक्तिगत आधार में लिया जाता था.

सवार का अर्थ घुड़सवार की निश्चित संख्या से लगाया जाता था उसे उतने घुड़सवार रखने ही होते थे. मनसबदार राजा की इच्छा से ही पद पर रह सकते थे.  मनसबदारों को तीन तरह का वेतन दिया जाता था. पहले श्रेणी के मनसबदार को तीस हज़ार रूपए प्रतिमाह, दूसरी श्रेणी के मनसबदार को उनतीस हज़ार रूपये और पतीसरी श्रेणी के मनसबदार को अठाईस हज़ार रूपए प्रतिमाह दिए जाते थे.

जिसके पास जितना बड़ा मनसब होता था उसे उतने ही ज्यादा घुडसवार रखने होते थे .

Also Read – हनुमान जी का सूर्य निगलना | विवाह की कहानी | कथा | Sindoor Birth Story

ददनी प्रथा

मुग़ल काल में व्यापार और वाणिज्य उन्नत दशा में था. इस काल में व्यापारियों को आसानी से ऋण मिलता था. ऋण मिलने की एक नयी व्यवस्था को ददनी कहते थे.इस व्यवस्था के अनुसार कारीगरों को धन दे दिया जाता था व कारीगरों को एक निश्चित समय में माल तैयार करके व्यापारियों देना ही होता था.इसके अलावा उधार लिया जाने वाला धन जहाज में माल के साथ ही रख दिया जाता था .

जमींदारी प्रथा

भारत के मध्य काल और औपनिवेशिक काल में जमींदारी प्रथा का प्रचलन था. यह भारत की राजनीतिक कुप्रथा में से एक थी. इस प्रथा के अंतर्गत भूमि पर काम करने वालों का अधिकार नहीं होता था बल्कि भूमि पर अंगेजी गवर्नरों का अधिकार होता था लेकिन कर वसूलने के लिए बे यह भूमि किसी और को दे देते थे उसे जमीदार कहते थे जो उस भूमि पर कर वसूल करता था जो लोग उस भूमि पर कृषि करते थे.

 प्राचीन परम्परा के मुताबिक भूमि सार्वजनिक संपत्ति थी भूमि भी वायु , जल और प्रकाश  की तरह प्राकृतिक उपहार थी. जमींदारी प्रथा का जन्म अंग्रेज शासकों की नीलामी नीति के माध्यम से हुआ. गाँव की भूमि का विभाजन नीलामी के माध्यम से होता था जो अधिकतम बोली लगाता था. भूमि उसे बेच दी जाती थी और जो लोग उस जमीन पर कृषि करते थे उन किसानों से वह नीलामी लेने वाला कर वसूल करता था. आरम्भ में अवध में बंदोबस्त किसानों से कर दिया जाता था बाद में राजनीतिक कारणों से यह बंदोबस्त जमींदारों से किया जाने लगा .

ठगी प्रथा

भारत में 17 वीं और 18 वीं सदी में कटनी से स्लीमाबाद तक और उसके आस पास के क्षेत्रों में लोगों के लिए ठगी एक परम्परागत व्यवसाय था. एक ख़ास वर्ग के लोग रास्ते में राहगीरों को ठग लेते थे या फिर लूट लेते थे और लूट में मिले धन से अपना परिवार की गुजर बसर करते थे .

ठगी करना एक ख़ास क्षेत्र के लोगों का व्यवसाय था. भारत में 17 वीं और 18 वीं सदी में में बुंदेलखंड से विदर्भ और उत्तर भारत के कुछ भाग में ठगों का बहुत प्रभाव था. लोग उनसे बहुत डरते थे क्योंकि ठग लूटपात करते थे व् लूट के बाद लोगों की हत्याएं कर देते थे ऐसे ठगों में आमिर अली और बहराम लोगों को ठगने के साथ हत्याएं कर देते थे .

इस काम में बच्चे भी शामिल होते थे  ऐसे लोग शाम होते ही अपना शिकार खोज कर ठग लेते थे या फिर लुट लेते थे .

Also Read – Shree Parshwanath Chalisa | भगवान पार्श्वनाथ चालीसा | Download PDF

पर्दा प्रथा

पर्दा प्रथा सम्पूर्ण विश्व में काफी समय से प्रचलित है . पर्दा शब्द मुख्यतया फ़ारसी शब्द है

भारत में यह प्रथा मुगलों के शासन काल में 12 वीं सदी में शुरू हुई. इस प्रथा ने मुस्लिम शासकों के समय में भारत में पर्दा प्रथा काफी मजबूत हो गयी.

पर्दा प्रथा की शुरुआत मुस्लिम धर्म में शुरू हुई और पर्दा में सबसे पहले मुंह ढकने के लिए बुर्का शुरू हुआ. मुस्लिम महिलायें और लड़कियों ने खुद को पुरुषों की नज़र से बचाने के लिए बुर्का इस्तेमाल किया.

भारत में पर्दा प्रथा मुस्लिमों ने शुरू किया था. मुस्लिम आक्रमणकारी और मुसलमानों से बचने के लिए हिन्दू स्त्रियों ने भी पर्दा प्रथा को अपना लिया क्योंकि मुस्लिम शासक और उनके नुमाइंदे हिन्दू स्त्रियों को बुरी नज़र से देखते थे तथा उन्हें घर से उठाकर राजा के हरम में ले जाते थे या हिन्दू स्त्रियों और लड़कियों क साथ जबरदस्ती शादी कर लेते थे. इसलिए हिन्दू स्त्रियों ने पर्दा प्रथा अपनाई .