रस की संपूर्ण जानकारी के लिए इस पोस्ट पर बने रहें| hellozindgi.com पे Ras Kya Hai in Hindi की इतनी जानकारी है कि आप पढ़ते पढ़ते थक जाएंगे पर हम ऑप्शन्स देते देते नही।
रस क्या है –
बता दें कि रस का शाब्दिक अर्थ ‘आनन्द’ होता है। काव्य को पढ़ने या फिर सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, तो उसे रस ही कहा जाता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि रस को काव्य की आत्मा माना जाता है।
प्राचीन भारतीय वर्ष में रस का एक बहुत महत्वपूर्ण स्थान हुआ करता था। रस -संचार के बिना कोई भी उपयोग सफल बिल्कुल भी नहीं किया जा सकता था। रस के कारण कविता के पठन , श्रवण एवं नाटक के अभिनय से देखने वाले लोगों को बहुत ही अधिक आनन्द मिलता है।
भरतमुनि के द्वारा रस की परिभाषा-
आपको यह भी बता दूँ कि रस उत्पत्ति को सबसे पहले परिभाषित करने का श्रेय भरत मुनि को ही जाता है। उन्होंने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रास रस के आठ प्रकारों का वर्णन खूब बढ़िया तरीके से किया है। रस की व्याख्या करते हुए भरतमुनि यह कहते हैं कि सब नाट्य उपकरणों के द्वारा प्रस्तुत एक भावमूलक कलात्मक अनुभूति है। रस का केंद्र रंगमंच है। भाव रस नहीं, उसका आधार ही है परन्तु भरत ने स्थायी भाव को ही रस ही माना है।
भरतमुनि ने यह भी लिखा है- “विभावानुभावव्यभिचारी- संयोगद्रसनिष्पत्ति ” मतलब विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। अत: भरतमुनि के ‘रस तत्त्व’ का आधारभूत विषय नाट्य में रस (Ras) की निष्पत्ति बताई गई है।
रस के अंग
बता दें कि हिन्दी व्याकरण में रस के चार अवयव या अंग होते हैं। जो कि निम्न प्रकार से हैं-
- विभाव
- अनुभाव
- संचारी भाव
- स्थायीभाव
स्थायी भाव- ध्यान रहे कि सहृदय के हृदय में जो भावी स्थायी रूप से विद्यमान रहते हैं, उन्हें स्थायी भाव कहते हैं। इन्हें अनुकूल या फिर प्रतिकूल किसी प्रकार के भाव को बिल्कुल भी दबा नहीं पाते। प्रत्येक रस का एक स्थायी भाव होता है। इनकी संख्या कम से कम 10 होती है। रति, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा (घृणा), विस्मय, शम (निर्वेद), वत्सल स्थायी भाव हैं।
संचारी भाव- दरअसल आश्रय के चित्त में उत्पन्न होने वाले अस्थिर मनोविकारों को संचारी भाव ही कहते हैं। इसे व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है। ये स्थायी भावों को पुष्ट करने में बहुत ही मददगार साबित होते हैं। इनकी स्थिति पानी के बुलबुले के समान उत्पन्न होने एवं समाप्त होने रहने की होती है। इनकी संख्या केवल 33 ही है। प्रमुख संचारी भाव- दैन्य, मद, जड़ता विषाद, निद्रा, मोह, उग्रता, शंका, चपलता, निर्वेद, ग्लानि, हर्ष, आवेग, स्मृति, आलस्य, चिंता, दीनता आदि।
अनुभाव- आश्रय की बाह्य शारीरिक चेष्टाओं को अनुभव ही कहते हैं। अनुभव के केवल चार प्रकार ही होते हैं- कायिक, मानसिक, आहार्य एवं सात्विक।
विभाव- स्थायी भावों के उत्पन्न होने के कारणों को विभाव ही कहते हैं। ये केवल दो ही प्रकार के होते हैं- आलंबन एवं उद्दीपन।
रस के प्रकार –
रस के प्रकार निम्नलिखित हैं –
- श्रृंगार रस
- हास्य रस
- रौद्र रस
- करुण रस
- वीर रस
- अद्भुत रस
- वीभत्स रस
- भयानक रस
- शांत रस
- वात्सल्य रस
- भक्ति रस
श्रंगार रस- बता दे कि नायक, नायिका के सौंदर्य एवं प्रेम संबंधी परिपक्व अवस्था को श्रृंगार रस ही कहते हैं। श्रृंगार रस का स्थायी भाव ‘रति’ होता है।
हास्य रस- जहाँ किसी मनुष्य की वेशभूषा, आकृति एवं विकृत वाणी को देखकर या सुनकर हँसी उत्पन्न हो जाती है तो वहाँ हास्य रस ही होता है। हास्य रस का स्थायी भाव ‘हास’ होता है।
करुण रस- किसी प्रिय मनुष्य या फिर किसी वस्तु के अनिष्ट या विनाश होने से जो हमारे मन में विकलता आती है, तो वहाँ करुण रस होता है। करुण रस का स्थायी भाव ‘शोक’ होता है।
रौद्र रस- ऐसी काव्य पंक्तियाँ जिन्हें पढ़ने या फिर सुनने से आप में गुस्सा या रौद्र का भाव जागे, तो वहाँ रौद्र रस ही होता है। जब काव्य में क्रोध भाव का वर्णन हो तब रौद्र रस की निष्पत्ति होती है। रौद्र रस का स्थायी भाव ‘क्रोध’ ही होता है।
वीर रस- ओजस्वी वीर घोषणाएँ या फिर वीर गीत सुनकर एवं उत्साह वर्धक कार्यकलापों को देखने से यह रस बहुत ही जाग्रत होता है। वीर रस का स्थाई भाव ‘उत्साह’ होता है।
भयानक रस- भयंकर प्राकृतिक दृश्यों को देखकर अथवा प्राणों के विनाशक बलवान दुश्मन को देखकर अथवा उसका वर्णन सुनकर डर उत्पन्न होता है, तो वहाँ भयानक रस ही होता है। भयानक रस का स्थायी भाव ‘भय’ ही होता है।
वीभत्स रस- बता दें कि जहाँ दुर्गंधयुक्त वस्तुओं, चर्बी, रुधिर आदि का ऐसा वर्णन हो जिससे मन में घृणा उत्पन्न हो तो वहाँ विभत्स रस ही होता है। इस का स्थायी भाव ‘जुगुप्सा (घृणा)’ होता है।
अद्भुत रस- जहाँ अलौकिक एवं आश्चर्य जनक वस्तुओं या फिर घटनाओं को देखकर या सुनकर जो विस्मय (आश्चर्य) भाव हृदय में उत्पन्न होता है, तो वहाँ अद्भुत रस ही पाया जाता है। अद्भुत रस का स्थायी भाव ‘विस्मय (आश्चर्य)’ होता है।
शांत रस- संसार की असारता का अनुभव होने पर हृदय में तत्वज्ञान या फिर वैराग्य भावना के जाग्रत होने पर शांत रस निष्पन्न हो जाता है। इसका स्थायी भाव ‘निर्वेद’ होता है।
वात्सल्य रस- दरअसल जहाँ बच्चों की आनंदमयी क्रीडाओं तथा बातों का वर्णन हो, तो वहाँ वात्सल्य रस ही होता है। जिन पंक्तियों को पढ़कर मन में ममता के भाव, वात्सल्य के भाव आएँ वहाँ वात्सल्य रस ही होता है।