Sanskrit Shlok with Hindi Meaning|Sanskrit Shlok on Life

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आज इस पोस्ट में हम आपको आसान शब्दों में Sanskrit shlok with hindi meaningके बारे में विस्तार से जानकारी देंगे। चलिए जानते हैं संस्कृत में श्लोक के जीवन जीने के मूल्य, जीवन जीने की नीतियाँ एवं उनसे होने वाले फायदों को बताया गया है

संस्कृत श्लोक – 

बता दें कि सु का अर्थ होता है अच्छा ‘श्रेष्ठ’ एवं भाषित का अर्थ है ‘उच्चारित करना’ या ‘बोलना’; इस प्रकार सुभाषित का अभिप्राय अच्छा उच्चारित करना या फिर बोलना हुआ। सुभाषित श्लोक संस्कृत भाषा के प्राण हैं। कहा जाता है कि संस्कृत के श्लोक हमारे जीवन के आधार बने हुए हैं।

ध्यान देने वाली बात यह है कि संस्कृत में श्लोक के जीवन जीने के मूल्य, जीवन जीने की नीतियाँ एवं उनसे होने वाले फायदों को बताया गया है।

संस्कृत श्लोकों का संग्रह 

1. उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा: ।।

अर्थ:- उद्यम, यानि मेहनत से ही कार्य पूरे होते हैं, सिर्फ इच्छा करने से नहीं। जैसे सोये हुए शेर के मुँह में हिरण स्वयं प्रवेश नहीं करता बल्कि शेर को स्वयं ही प्रयास करना पड़ता है।

2. त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।।

अर्थ – हे प्रभु, तुम्हीं मेरी माता हो, तुम ही पिता भी हो, बंधु भी तुम ही हो, सखा भी तुम ही हो। तुम ही मेरी विद्या, और हे विष्णु तुम ही देवता भी हो।

3. कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु:।

अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा ।।

अर्थ – न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं।

4. आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।

नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।

अर्थ – मनुष्य के शरीर में रहने वाला आलस्य ही मनुष्य का सबसे महान शत्रु होता है, तथा परिश्रम जैसा कोई मित्र नहीं होता, क्योंकि परिश्रम करने वाला व्यक्ति कभी दुखी नहीं होता, जबकि आलस्य करने वाला व्यक्ति सदैव दुखी रहता है।

5. नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने।

विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वयमेव मृगेंद्रता।।

अर्थ – शेर को जंगल का राजा नियुक्त करने के लिए न तो कोई राज्याभिषेक किया जाता है, न कोई संस्कार । अपने गुण और पराक्रम से वह खुद ही मृगेंद्रपद प्राप्त करता है। यानि शेर अपनी विशेषताओं और वीरता (‘पराक्रम’) से जंगल का राजा बन जाता है।

6. वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया ।

लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं ।।

अर्थ:- जिस मनुष्य की वाणी मीठी है, जिसका कार्य परिश्रम से युक्त है, जिसका धन दान करने में प्रयुक्त होता है, उसका जीवन सफल है।

7. प्रदोषे दीपक : चन्द्र:,प्रभाते दीपक:रवि:।

त्रैलोक्ये दीपक:धर्म:,सुपुत्र: कुलदीपक:।।

अर्थ:- संध्या-काल मे चंद्रमा दीपक है, प्रातः काल में सूर्य दीपक है, तीनो लोकों में धर्म दीपक है और सुपुत्र कुल का दीपक है।

8. प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।

तस्मात तदैव वक्तव्यम वचने का दरिद्रता।।

अर्थ:- प्रिय वाक्य बोलने से सभी जीव संतुष्ट हो जाते हैं, अतः प्रिय वचन ही बोलने चाहिएं। ऐसे वचन बोलने में कंजूसी कैसी।

9. सेवितव्यो महावृक्ष: फ़लच्छाया समन्वित:।

यदि देवाद फलं नास्ति,छाया केन निवार्यते।।

अर्थ:- विशाल वृक्ष की सेवा करनी चाहिए क्योंकि वो फल और छाया दोनो से युक्त होता है। यदि दुर्भाग्य से फल नहीं हैं तो छाया को भला कौन रोक सकता है।

10. देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन:।

गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः।।

अर्थ:- भाग्य रूठ जाए तो गुरु रक्षा करता है, गुरु रूठ जाए तो कोई नहीं होता। गुरु ही रक्षक है, गुरु ही रक्षक है, गुरु ही रक्षक है, इसमें कोई संदेह नहीं।

11. अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम

पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।

अर्थ:- अपमान करके दान देना, विलंब से देना, मुख फेर के देना, कठोर वचन बोलना और देने के बाद पश्चाताप करना- ये पांच क्रियाएं दान को दूषित कर देती हैं।

12. अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलं।।

अर्थ:- बड़ों का अभिवादन करने वाले मनुष्य की और नित्य वृद्धों की सेवा करने वाले मनुष्य की आयु, विद्या, यश और बल -ये चार चीजें बढ़ती हैं।

13. दुर्जन:परिहर्तव्यो विद्यालंकृतो सन ।

मणिना भूषितो सर्प:किमसौ न भयंकर:।।

अर्थ:- दुष्ट व्यक्ति यदि विद्या से सुशोभित भी हो अर्थात वह विद्यावान भी हो तो भी उसका परित्याग कर देना चाहिए। जैसे मणि से     सुशोभित सर्प क्या भयंकर नहीं होता?

14. हस्तस्य भूषणम दानम, सत्यं कंठस्य भूषणं।

श्रोतस्य भूषणं शास्त्रम,भूषनै:किं प्रयोजनम।।

अर्थ:- हाथ का आभूषण दान है, गले का आभूषण सत्य है, कान की शोभा शास्त्र सुनने से है, अन्य आभूषणों की क्या आवश्यकता है।

15. यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं।

लोचनाभ्याम विहीनस्य, दर्पण:किं करिष्यति।।

अर्थ:- जिस मनुष्य के पास स्वयं का विवेक नहीं है, शास्त्र उसका क्या करेंगे। जैसे नेत्रविहीन व्यक्ति के लिए दर्पण व्यर्थ है।

संस्कृत में श्लोक की आवश्यकता एवं महत्त्व – 

बता दें कि प्राचीनकाल से लेकर आज तक संस्कृत के श्लोक हमारे जीवन के आधार बने हुए हैं। संस्कृत में श्लोक के जीवन जीने के मूल्य, जीवन जीने की नीतियाँ एवं उनसे होने वाले फायदों को बताया गया है; जैसे-बिना नाविक के नाव एवं बिना पायलट के वायुयान दिशाहीन माना जाता है वैसे ही सुभाषित श्लोकों के अध्ययन एवं ज्ञान के अभाव में मानव जीवन दिशाहीन और भ्रमित-सा प्रतीत होता है।

दरअसल सुभाषित श्लोक, दिशाहीन मनुष्य को दिशा प्रदान करते हैं एवं जीने की नीतियों तथा उनके ज्ञान में प्रवीण करते हैं। इनके अध्ययन एवं ज्ञान के द्वारा व्यक्ति अपना एवं अपने निकट समाज का सम्यक् और सर्वांगीण विकास कर सकता है। उसके वैचारिक स्तर में सम्पूर्णता आती है। सम्पूर्णता प्राप्ति से एक आदर्श मानव का निर्माण होता रहता है। वह यह समझता है-“वसुधैव कुटुम्बकम्” ।

दरअसल वह अपना पराए के भेद को समाप्त कर सर्वे भवन्तु सुखिन: वाक्य की सार्थकता के साथ पूरी तरह से रम जाता है। ऐसा मनुष्य-“श्रूयतां धर्म सर्वस्वं’ के भाव का प्रदर्शन करने की समग्र योग्यता संचित अवश्य कर लेता है।

श्लोकों के द्वारा ही विद्यार्थी अपने लक्ष्यों की ओर अग्रसर होता रहता है-

जैसे – 

काक चेष्टा वकोध्यानं श्वान निद्रा तथैव च।

अल्पाहारी, गृहत्यागी विद्यार्थी पंच लक्षणः।।

अतः इस प्रकार सुभाषित श्लोक सम्पूर्ण जीवन के हितार्थ लाभप्रद, औषधि तथा अमृत स्वरूपा है। इस अमृत तुल्य औषधि रूप संस्कृत श्लोकों में जीवन के मूल्य सुरक्षित हैं। बता दें कि सम्पूर्ण जीवन का सार (रहस्य) इनके अंक (गोद) में विद्यमान होता है। इनके ज्ञान के वशीभूत होकर व्यक्ति मृत्यु पर विजय पा लेता है, उसे मृत्यु का डर भी नहीं सताता। वह निर्भय एवं आसक्त भाव से इस मानव शरीर का उपभोग करता रहता है। उसे यह ज्ञान हो जाता है कि – नैनं छिन्दति शस्त्राणि ।

इससे स्पष्ट होता है कि संस्कृत सुभाषित श्लोक मात्र विद्यार्थी जीवन के लिए ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण प्राणी मात्र के लिए सर्वांगीण विकास का स्वस्थ आधार बन गया है। इनके अध्ययन और ज्ञान के बिना जीवन शैली पूरी तरह से अधूरी एवं अन्धकारमय बन जाता है।

संस्कृत श्लोक कैसे याद करें?

  • छात्र को पढ़े हुए की पुनरावृत्ति अवश्य करता रहें.
  • संक्षिप्त नोट्स को ध्यानपूर्वक अवश्य बनाये.
  • मन न लगे तो भी ज़रूर पढ़े.
  • ध्यान रहे कि बड़े टॉपिक को बिन्दुवार खण्ड बनाकर ज़रूर पढ़े.
  • पढ़ा हुआ याद आता है, इस बात पर विश्वास भी अवश्य बनाये रखे। धन्यवाद।

निष्कर्ष – 

आशा करता हूँ कि हमारे द्वारा दी गई सारी जानकारी आपको अवश्य पसंद आई होगी अतः आपसे निवेदन है कि अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए आप हमारी इस वेबसाइट से अवश्य जुड़े रहें. धन्यवाद.